History: दिल्ली पर राज करने वाले इस शासक को दफनाते ही अंग्रेजों ने क्यों मिटा दी उनकी कब्र?

History: मुगलों के हर बादशाह राजकुमार, नवाब यहां तक की उनके सिपेहसलार और वजीरों तक के आलीशान मकबरे हिन्दुस्तान में मौजदू हैं। मुगलों का लेकिन एक बदनसीब बादशाह ऐसा भी रहा है जिसका कोई मकबरा कहीं नहीं है। उसकी कब्र भी हिन्दोस्तान में नहीं है। उसकी कब्र का भी उसकी मौत के 182 साल बाद पता चला है। अंग्रेजों ने आखिर उस आखिरी बादाशह के साथ ऐसा क्यों किया। इतिहास पर एक नज़र डालते हैं।

1857 की क्रांति के नायक था

यह बात 1857 से पहले की है। हिन्दुस्तान के रजवाडे और राजा मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का प्लान बना रहे थे। उसमें अंग्रेजी फौज के कुछ सैनिक भी थे। इन सब लोगों ने इस क्रांति का नेता आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर का चुना था। क्रांति की तैयारियां हो चुकी थीं। अंदरूनी तौर पर उसके लिए सही समय का इंतजार किया जा रहा था। अंग्रेज उसके लिए सतर्क थे लेकिन उस पहले ही मेरठ की छावनी में सैनिकों ने अंग्रेजी अफसरों को मारकर क्रांति बिगुल फूंक दिया। अंग्रेज इस चौकन्ने हो गये। उन्होंने दिल्ली की तरफ आने वाली मदद को रोक दिया। नवाबों के सिपाही राजाओं के सिपाही जो दिल्ली की तरफ बढ़ते थे अंग्रेज उन्हें रास्ते में रोक लेते थे। उन्होंने दिल्ली की जमना का पार नहीं करने दिया।

इस क्रांति के विफल होने के बाद आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर को उनके पुरखों की कब्रों के पास से हुमायू के मकबरे से पकड़ा गया। उनके साथ ही उनके बेटों और रिश्तादारों को भी पकड़ लिया गया। हिन्दोस्तान के हालातों को देखते हुए उन्हें रंगून यानी काला पानी भेज दिया गया। वहां उन्हें एक घर में कैद करके रखा गया। जहां 6 नवंबर 1862 को सुबह पांच बजे लकवे का तीसरा दौरा पड़ने से उनका इंतकाल हो गया।

दो गज जमीं भी ना मिली कुए यार में

बहादुर शाह जफर एक कवि शायर और बड़े ही नर्म दिल आदमी थे। बहादुर शाह जफर ने अपने जीते जी बहुत सी गजले लिखी थीं। उनके यहां मुशायरा होता था। वह खुद भी अपना कलाम पढ़ते थे। उन्होंने एक गजल लिखी जिसका एक शेर था ” इतना बदनसीब हुआ तु जहां में ए ज़फर, दौ गज जमीं भी ना मिली कुए यार में” उनके पिता अकबर दित्तीय नर्म दिल होने की वजह से उन्हें गद्दी नहीं देना चाहते थे।

बहादुर शाह जफर के बाद पूरी तरफ अंग्रेजों ने भारत को अपने कब्जे में ले लिया था। उनकी मौत की ख़बर तक लोगों को नहीं लगी थी। उनके जनाजे में कुल 100 लोग थे वो उनके जानकार नहीं बल्कि तमाशबीन थे। ब्रिगेडियर जसबीर सिंह अपनी किताब कॉम्बैट डायरी, ऐन इलस्ट्रेटेड हिस्ट्री ऑफ़ ऑपरेशन्स कनडक्टेड बाय फोर्थ बटालियनए द कुमाऊं रेजिमेंट 1788 टू 1974 में लिखते हैं रंगून में उसी दिन शाम 4 बजे 87 साल के इस मुग़ल शासक को दफना दिया गया था। वो लिखते हैं, रंगून में जिस घर में बहादुर शाह ज़फ़र को क़ैद कर के रखा गया था उसी घर के पीछे उनकी कब्र बनाई गई और उन्हें दफनाने के बाद कब्र की ज़मीन समतल कर दी गई। इसके अलावा ब्रिटिश अधिकारी डेविस ने भी लिखा है कि जफर को दफनाते वक्त करीब 100 लोग वहां मौजूद थे। और यह वैसी ही भीड़ थी, जैसे घुड़दौड़ देखने वाली या सदर बाजार घूमने वाली। उनको दफनाने के 132 साल बाद उनकी कब्र की पहचान की जा सकी थी।

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